International Women’s Day 2022: जब महिलाओं ने अपने हाथों में कलम को हथियार बनाकर क्रांतिकारियों का बढ़ाया था हौसला

by Aaditya HridayAaditya Hriday
8 march

International Womens Day 2022 स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष में बहुत सी महिलाओं ने कलम को हथियार बनाकर क्रांतिकारियों का मनोबल बढ़ाया था। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) पर ऐसी ही कुछ स्वातंत्र्य साधिकाओं की याद करता विशेष आलेख..

शुभा श्रीवास्तव, वाराणसी। देश की स्वाधीनता के लिए पुरुषों के साथ स्त्रियों ने भी बराबर सहभागिता की है। हिंदी साहित्य में अनेक स्त्री रचनाकारों ने स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ में स्वयं आहुति दी है और साथ ही अपने सृजन से ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपना तीव्र, दृढ़ व सशक्त विरोध दर्ज किया। हरदेवी (पत्नी लाला रोशनलाल) का जन्म सन् 1860 के आसपास हुआ था। हरदेवी ने अपनी पत्रिका ‘भारत भगिनी’ के माध्यम से प्राप्त धन से स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की थी तभी से वह अंग्रेजी सरकार की आंखों में खटकती थीं। बाद में पटियाला षड्यंत्र केस में ‘भारत भगिनी’ को राजद्रोहात्मक साहित्य मानकर जब्त कर लिया गया था। विदेशी बहिष्कार आंदोलन में वह अग्रणी पंक्ति में थीं।

कमला बाई किबे का जन्म सन् 1886 में महाराष्ट्र में हुआ था। असहयोग आंदोलन से वह विशेष रुप से जुड़ी हुई थीं। गांधी जी की प्रेरणा से उन्होंने हरिजन उद्धार कार्यक्रम चलाया था। हिंदी से अपने जुड़ाव के लिए हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर, मराठी साहित्य परिषद इत्यादि में वह सदस्य के रूप में विशेष सक्रिय थीं। किबे की कहानी कृष्णाबाई ‘चांद’ पत्रिका में सन् 1935 में प्रकाशित हुई थी। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने हिंदी की अनेक साहित्यिक कृतियों को मराठी में अनुवाद तब किया था जब अनुवाद कार्य का उतना प्रचलन नहीं था। उनकी ‘बालकथा’ नामक पुस्तक बाल साहित्य की अनुपम निधि है।

शिवरानी देवी का जन्म सन् 1889 में फतेहपुर में हुआ था, इनके पिता मुंशी देवी प्रसाद और पति प्रेमचंद थे। इन्हें सन् 1929 में स्वदेशी आंदोलन, नमक कानून के विरोध और जनसभाओं में विद्रोहात्मक भाषण के लिए कई बार गिरफ्तार किया गया था। कांग्रेस के महिला आश्रम की वह कप्तान थीं। उनकी स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखी कहानियों में ‘माता’, ‘गिरफ्तारी’, ‘जेल में’ और ‘बलिदान’ प्रमुख हैं।

जानकी देवी बजाज का जन्म सात जनवरी, 1893 को हुआ था। जानकी देवी को गांधी जी अपना पांचवां पुत्र कहते थे। उन्होंने गांधी जी के साथ अनेक आंदोलन में सहयोग किया। कविताओं के साथ-साथ उन्होंने ‘समर्पण और साधना’ नामक संस्मरण लिखे हैं जिनमें विनोबा भावे, कस्तूरबा गांधी, महात्मा गांधी आदि के बारे में संस्मरण हैं जिससे हमें उनके कई बार जेल जाने और अन्य आंदोलनों के संदर्भ में जानकारी होती है। सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म सन् 1904 में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुआ था। सुभद्रा कुमारी ने जलियांवाला बाग कांड से व्यथित होकर ‘जलियांवाला बाग में बसंत’ नामक कविता लिखी थी, जो स्वतंत्रता के लिए आह्वान करती थी। सन् 1922 के जबलपुर झंडा सत्याग्रह की सुभद्रा कुमारी प्रथम महिला सत्याग्रही थीं। वह कहती हैं..

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सुभद्रा कुमारी एक सफल कहानीकार भी रही हैं। इनकी राष्ट्रीयतापरक कहानियां ‘बिखरे मोती’, ‘उन्मादिनी’ कहानी संग्रह में संकलित हैं। सुभद्रा कुमारी की बड़ी बहन राजदेवी की रचनाओं का स्वर सुधारवादी रहा है। वह सुभद्रा कुमारी की भांति उग्र रचानाएं नहीं लिखती थीं। फिर भी देशसेवा के लिए सदैव तत्पर रहती थीं। सुभद्रा कुमारी की छोटी बहन कमला कुमारी ने भी अनेक आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उनकी देश प्रेम संबंधी कविताएं ‘जीवन की साधना’ नाम से संग्रहित हैं।

सुशीला दीदी का जन्म पांच मार्च, 1905 को हुआ था। ‘गया ब्याहन आजादी, लड़ा भारत दा डोली से घर आसी, लड़ा भारत दा’ नामक पंजाबी कविता सुशीला देवी ने सन् 1921 में गांधी जी की गिरफ्तारी के विरोध में लिखी थी। काकोरी कांड के मुकदमे के लिए उन्होंने अपनी शादी के लिए रखा 10 तोला सोना दान दे दिया था और मुकदमे की पैरवी की थी। भगत सिंह, बाल गंगाधर तिलक, सरोजिनी नायडू, बटुकेश्वर दत्त आदि क्रांतिकारियों से सुशीला दीदी के अच्छे संबंध थे।

कमला चौधरी का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान और राजनीतिक जीवन हर किसी के संज्ञान में है। कमला का जन्म सन् 1908 में हुआ था। उनके पिता राम मोहन दयाल थे। सन् 1930 के ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ के दौरान वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुई थीं और कई बार जेल गई थीं। वह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सांसद भी रहीं। ‘पिकनिक’, ‘उन्माद’, ‘प्रसादी’, ‘कमंडल यात्र’ आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं

विद्यावती कोकिल का जन्म 26 जुलाई, 1914 को हुआ था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निरंतर सक्रिय होने के कारण वह कई बार जेल भी गई थीं। स्वतंत्रता सेनानी लेखिका आशारानी व्होरा उनके संदर्भ में कहती हैं कि उन दिनों कोई भी कवि सम्मेलन उनके गीतों के बिना सूना रहता था तो स्वतंत्रता संग्राम के सभा मंच भी उनकी ओजस्वी राष्ट्रीय कविताओं के बिना अधूरे समङो जाते थे।

तत्कालीन समय में अंग्रेजी सरकार द्वारा वैचारिक हमले भी निरंतर होते रहते थे। इसका एक उदाहरण मिस मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ को कहा जा सकता है। इस वैचारिक हमले का उत्तर चंद्रावती लखनपाल ने ‘मदर इंडिया का जवाब’ नामक पुस्तक लिखकर दिया था। चंद्रावती लखनपाल के समान ही गोपाल देवी ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से श्रेष्ठ योगदान दिया है। उनका जन्म सन् 1890 में हुआ था। ‘गृहलक्ष्मी’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रवादी विचारधारा का विस्तार किया था। उनके घर पर स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित अनेक गोष्ठियां होती थीं।

इनके अतिरिक्त तोरण देवी शुक्ल लली, बुंदेल बाला, जनक दुलारी, कुमारी राजेश्वरी पटेल, सूर्य देवी दीक्षित, ललिता देवी, अनूप सुंदरी, कमला कुमारी, राम कुमारी देवी चौहान, उषा देवी मित्र, राजेश्वरी देवी नलिनी, तारा पांडे, रामेश्वरी मिश्र चकोरी, शांति अग्रवाल, आशारानी व्होरा इत्यादि ने सृजनात्मक योगदान के साथ स्वतंत्रता का स्वप्न देखा था और यथा शक्ति योगदान भी दिया था। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर्व पर इतिहास के पन्नों में गुम इन स्वातंत्र्य साधिकाओं को नमन।

उर्मिला देवी शास्त्री का जन्म 20 अगस्त, 1909 को श्रीनगर में हुआ था। इनके पिता लाला चिरंजी लाल थे। उर्मिला देवी ने नौचंदी मेले में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार आंदोलन का नेतृत्व किया था। इन्होंने लाहौर से ‘जन्मभूमि’ नामक दैनिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया था जिसमें ‘जेल जीवन के अनुभव’ धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुए थे। इसका संपादकीय अंग्रेजी शासन विरोधी होने के कारण इन्हें बंदी बनाकर पत्र का प्रकाशन रोक दिया गया था। बाद में मरणासन्न अवस्था में इन्हें जेल से रिहा किया गया। छह जुलाई, 1941 को इन्होंने कैंसर व्याधि के कारण शरीर त्यागा। जेल के अनुभवों को बाद में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया जिसकी भूमिका कस्तूरबा गांधी ने लिखी थी। इसमें उर्मिला देवी बताती हैं कि रेत मिली रोटियां कैदियों को दी जाती थीं और उन्हें बदबूदार स्थानों पर रखा जाता था। वहां फर्श पर कीड़े रेंगते थे जिससे अनेक बीमारियां होती थीं।

उर्मिला देवी की बड़ी बहन सत्यवती मलिक तथा छोटी बहन पुरुषार्थवती देवी को हिंदी साहित्य में रुचि रखने वाले बखूबी पहचानते हैं। इन दोनों बहनों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में बराबर भूमिका निभाई थी। सत्यवती मलिक का जन्म एक जनवरी, 1906 को हुआ था। गांधी जी के प्रेरणास्वरूप वह आंदोलनों में सहभागिता करती थीं। जब यात्र वृत्तांत जैसी रचनाएं बहुत कम लिखी जाती थीं तब ‘कश्मीर की सैर’ जैसा प्रसिद्ध यात्रवृत्त उन्होंने लिखा था। पुरुषार्थवती देवी का जन्म 10 अक्टूबर, 1911 को पंजाब में हुआ था। मात्र 20 वर्ष के अपने जीवनकाल में इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ही नहीं लिया, बल्कि अनेक ऐसी रचनाएं लिखीं जिनको सुनकर और पढ़कर लोगों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना बलिदान दिया। सन् 1931 में इनका निधन हो गया। देशभक्ति वाली रचनाएं पुरुषार्थवती की विशेषता रही हैं। एक उदाहरण देखें-हे स्वच्छंद विचरने वाले हे स्वातंत्र्य सुधा रस वाले/ हमको भी स्वाधीन बना दे मीठा जल बरसाने वाले।

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